- 3 Posts
- 54 Comments
काठ के पुतलों !
एक कलम लिखवाना चाहती है
जनतंत्र के गुमशुदा होने की रपट
तुम बोलते क्यों नहीं ?
जब दिनकर ने पूछा था –
” अंटका कहाँ स्वराज
बोल दिल्ली तू क्या कहती है ,
तू रानी बन गई वेदना
जनता क्यों सहती है ? ”
तब भी तुम चुप रहे
ख़ामोश थी संसद भी
नहीं बताया उसने ‘ धूमिल ‘ को
रोटियों से खेलने वालों का नाम |
हर हत्या के बाद वीरान हुए आँगनों में
चमकने वाले चाँद को सबसे ख़तरनाक बताकर
जब ‘ पाश ‘ ने पेश किया था तुम्हारे सामने
तुम गूँगे बने रहे |
देश की जनता को भेड़ बकरियों की शक्ल लेते देख
संसद मुस्कुराती रही |
राजा ने रखवाली की
उल्लुओं , चमगादड़ों और गीदड़ों की
रात के अँधेरे में निकलने लगा
ज़िंदा रूहों का जुलूस |
कलमें डूबने लगीं शराबखोरी में
कलम के सिपाहियों को भाने लगीं रंगीन महफ़िलें
हमारे सबसे खूबसूरत सपने के मुँह पर
काला कपड़ा बाँध लटका दिया गया फाँसी पर
राजनीति वेश्या बन गई , कुर्सियाँ सर्वोच्च लक्ष्य
भांडों ने संभाली न्यायपालिका |
महामहिम !
बताइए , छटपटाती आत्मा का दर्द लेकर
वह आदमी कहाँ जाए जो बिकाऊ नहीं है ?
जिसके अनुत्तरित और आहत प्रश्नों की प्रतिध्वनि
लौटकर वापस आ जाती है हर बार ,
वह कलम क्या करे ?
जनतंत्र का खो जाना कोई मामूली घटना नहीं है
जिस जनतंत्र को हमने
अपने लहू का घूँट पिलाकर पाला है
उसे यूँ ही खोने नहीं देंगे
खुदाओं से कहो , वक्त है संभल जाएँ
स्वर्ग की सुकोमल शय्या पर
हम उन्हें और सोने नहीं देंगे |
Read Comments